मन अपनी ही धुन से चलता
पल पल ह्रदय अग्नि मैं जलता
देख देख कर हाहाकार ..
क्रंदन करती करुण पुकार ..
जीने की अभिलाषा से भी
तीव्र लालसा थी मरने की ..
प्रण प्राणों का कण कण अपना
न्योछावर तुझपर करने की ..
उस योगी ने जन्मदायनी को
यूँ कह दे दिया दिलासा ..
माँ तुझसे भी बड़ी आज है
मुझसे भारत माँ की आशा ..
धीर वीर था और दृढ व्रती
वो नियमो का पालक था ..
बोता था बन्दूक खेत मैं
जब नन्हा सा बालक था ..
छोड़ दिया घर -बार सभी कुछ ..
निकल पड़ा था राहों पर ..
आग निकल उसकी वाणी से
धधक उठी चौराहों पर
चूम लिया उसने यूँ फंदा
पहना हो जो हार प्रिये से
मरकर ऐसा अमर हो गया
क्या मिलता संसार जिए से ..
जब लेते है साँस हवा मैं
तब तब याद तुम्हें करते हैं ..
"भगत सिंह" तुम अमर रहोगे..
तुम से वीर कहाँ मरते हैं …
जब जब भी शोषण के खिलाफ
उठेंगे किंचिद, कोई हाथ ..
तब तब गूंजेगा मन्त्र फिर वही..
इन्कलाब जिंदाबाद..
इन्कलाब जिंदाबाद..
Saturday, October 23, 2010
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