दलित सिर्फ दलित ही बना रहना चाहता है, चाहे उसे
किसी प्रदेश का मुख्यमंत्री मना दो, लोकसभा अध्यक्ष बना दो या फिर भारत का
होम मिनिस्टर बन जाये ! चाहे लोकसभा की 131 या विधानसभा की 1125 सीट
रिजर्व सीटों पर लगातार चुनाव जीतकर विधायक या सांसद बनाने वाले भी, दोवारा
जनरल सीट से नहीं लड़ना चाहते और बार-बार चुनाव जीतकर भी कथित तोर पर दलित
ही रहना चाहते हैं, वो अपने आप को दलित कहने में फक्र महसूस करते है, क्या
करें वोट बैंक का सवाल जो है ! यानि दलित किसी जाति या गरीव या दावे-कुचले
व्यक्ति का नाम नहीं बल्कि एक मानसिकता का नाम है ! कैसा लोकतंत्र है ये,
जिसमे एक करोड़पति व्यक्ति कथित तौर पर दलित है और एक भीख मागने वाला भी
कथित तौर पर उच्च बोला जाता है !
Tuesday, April 2, 2013
आरक्षण
फेसबुक
पर ज्यादातर लोग आरक्षण विरोधी लड़ाई को जातिगत बनाकर लड़ना चाहते हैं ! कोई
ब्राहमणों को संगठित करने की बात होती है तो कहीं राजपूतो को इक्कठा करने
की !
आखिर हम इस लड़ाई को योग्यता को अधिकार दिलाने के पैमाने से क्यूँ नहीं देख पाते ! कुछ ब्राहमण और क्षत्रिय ही नहीं बल्कि बनिया, कायस्थ, पंजाबी, मुस्लिम, यादव, जाट, गुजर, धोवी, धानक, नाई, तेली, बंधू भी आरक्षण के खिलाफ हैं, उन्हें भी इस यज्ञ में आहुति डालने का मौका दो भाई!
आरक्षण के खिलाफ लड़ाई किसी एक जाति की नहीं बल्कि समाज के हर तबके की है,
ये लड़ाई किसी व्यक्ति से नहीं सरकार से है, ये हमें समझने और समझाने की
जरुरत है!
आरक्षण से जितना नुकसान अनारक्षित वर्ग का हो रहा है, उससे
कहीं ज्यादा आरक्षित वर्ग भी इसके दुष्परिनामो का शिकार है ! आरक्षण से अछे
खासे इंसान को अपाहिज बनाकर बैशाखी का सहारा दिया जा रहा है ! इसलिए में
सोचता हूँ अब हमें और बंटने की आवश्यकता नहीं है !
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